लेखक:मीरा पर्वतीय
मौन पलायन : Silent migration – हिमालय की हवाओं में जो सन्नाटा है, वो अब शांति का नहीं रहा। अब वह एक ऐसी खामोशी है जिसमें किलकारियों की गूंज नहीं, बल्कि उनके ना होने की टीस सुनाई देती है। उत्तराखंड—देवभूमि, जहां कभी गांवों के आंगन बच्चों की हंसी से गूंजते थे, वहां आज ताले लगे घर, सूनी चौपालें और बंजर खेत दिखते हैं।
हमारे युवाओं का गांव छोड़ना अब कोई नई बात नहीं रही। लेकिन यह जो चल रहा है, वह धीरे-धीरे, चुपचाप हो रहा है—बिना नारों, बिना प्रदर्शन के। यही है मौन पलायन — एक ऐसा परिवर्तन जो ना सिर्फ जनसंख्या को घटा रहा है, बल्कि हमारी पहचान, हमारी संस्कृति और हमारे भविष्य को भी खोखला कर रहा है।
पहाड़ों के गांव क्यों खाली हो रहे हैं? – ( Silent migration ) पौड़ी, चमोली, अल्मोड़ा और बागेश्वर जैसे जिलों में जाइए, तो सैकड़ों गांव वीरान मिलेंगे। पुराने मकानों पर जंग लगे ताले, मंदिरों में सूनी घंटियाँ और स्कूलों में घटती संख्या—यह सब किसी त्रासदी से कम नहीं।
पिछले कुछ दशकों में उत्तराखंड के 1000 से अधिक गांव आंशिक या पूर्ण रूप से खाली हो चुके हैं।
क्यों?
क्योंकि नौकरियां नहीं हैं।
क्योंकि खेती अब सम्मान और सुरक्षा नहीं देती।
क्योंकि पढ़ाई के लिए बच्चों को मैदानों में जाना पड़ता है और इलाज के लिए घंटों दूर अस्पताल।
इंटरनेट, जो आज पूरी दुनिया को जोड़ता है, हमारे कई गांवों में अभी भी संघर्ष बना हुआ है।
और ऐसे में, हमारे युवा चले जाते हैं—देहरादून, दिल्ली, चंडीगढ़, या फिर विदेश। कुछ त्योहारों में लौटते हैं, पर अधिकतर नहीं। वे जाते हैं भविष्य की तलाश में, लेकिन पीछे छोड़ जाते हैं खामोश घर और बूढ़े मां-बाप।
हम क्या खो रहे हैं? – हर युवा जो गांव छोड़ता है, वह अपने साथ सिर्फ बैग नहीं ले जाता—वह अपने साथ हमारे सपने, हमारे गीत, हमारी परंपराएं और हमारी भाषाएं भी ले जाता है।
संस्कृति का ह्रास हो रहा है।
पहाड़ी बोलियाँ जैसे गढ़वाली और कुमाऊंनी अब स्कूलों में नहीं, सिर्फ बुजुर्गों की बातचीत में सुनाई देती हैं।
त्योहार अब पूरी तरह से नहीं मनाए जाते, और जो कभी समुदाय की पहचान थे, वो अब फोटो एल्बम तक सिमट गए हैं।
जो बुजुर्ग गांव में बचे हैं, वे हर दिन किसी चिट्ठी, किसी फोन कॉल, या किसी त्योहार पर लौट आने की आस में जीते हैं।
क्या कोई रास्ता है? – हां, है। लेकिन केवल भावुकता से नहीं—हमें नई सोच, ठोस योजना और पहाड़ों के लिए अलग दृष्टिकोण चाहिए।
हमें गांवों को “छोड़ने लायक नहीं, लौटने लायक“ बनाना होगा।
- स्थानीय कृषि और रोजगार को बढ़ावा देना होगा। पारंपरिक फसलों जैसे मडुवा, झंगोरा और पहाड़ी मसालों को बाजार से जोड़ना होगा।
- डिजिटल कनेक्टिविटी और ऑनलाइन काम की सुविधा गांवों तक पहुंचानी होगी।
- स्थानीय युवाओं के लिए उद्यमिता के अवसर पैदा करने होंगे — इको टूरिज्म, हस्तशिल्प, जैविक खेती और लोक-कलाओं को रोजगार से जोड़ना होगा।
- स्वास्थ्य, शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट को मैदानों से निकालकर पहाड़ों तक लाना होगा।
- और सबसे जरूरी—हमें अपनी कहानियों को बदलना होगा। हमें यह सिखाना होगा कि गांव में रहकर भी सफल हुआ जा सकता है।
एक भावनात्मक आह्वान – उत्तराखंड एक संघर्ष से पैदा हुआ राज्य है—जहां लोग सम्मान, पहचान और अवसर की उम्मीद में सड़कों पर उतरे थे। क्या हम उस सपने को खंडहरों में मरने देंगे?
हम युवाओं से नहीं कह रहे कि वे अपने सपनों को छोड़ दें। हम सिर्फ यह चाहते हैं कि वे अपने जड़ों को ना भूलें।
अगर वो लौट सकते हैं—तो लौटें।
अगर नहीं लौट सकते—तो अपने गांव के लिए कुछ करें।
क्योंकि जब पहाड़ खामोश हो जाते हैं, तो हम सिर्फ आबादी नहीं खोते—
हम कहानियाँ खोते हैं,
हम जुबानें खोते हैं,
हम घर खोते हैं।
आइए, इस खामोशी को टूटने दें। लौटने की एक नयी कहानी लिखें।
(Silent migration)